Bharadwajgwalior
Friday 27 June 2014
Wednesday 7 May 2014
मरीचिका
दुनियाँ का विस्तार बड़ा है।
मिले वही निस्तार बड़ा है।
सर्वोपरि था कभी न कोई।
आगे भी नहीं संभव होई।
फिर क्यों हम इतने बेचैन।
हमको नहींपलभर भी चैन।
धन लालच में बुरे फंसे है।
गर्दन तक पंक में धंसे है।
परिचित,मित्रों को दे धोखा।
रिश्ते,नाते भी धन का खोखा।
मानव धर्म भी छोड़ खड़ा है।
दुनिया का विस्तार बड़ा है। मिले वही ..........
नवीनतम सुविधा की खातिर।
सज्जन भी बन रहे हैं शातिर।
नवीनतम की अभिलाषा मे।
सर्वोपरि कीझूठी प्रत्याशा में।
जीवन ही मशीनी बना डाला।
मानवमन का भाव मिटाडाला।
किसीभी रिश्ते की कीमत पर भी।
चाहे बेच दें देश,गाँव, और घर भी।
जब जीवन तो एक कच्चा घड़ा है।
दुनिया का विस्तार बड़ा है। मिले वही निस्तार बड़ा है।
मिले वही निस्तार बड़ा है।
सर्वोपरि था कभी न कोई।
आगे भी नहीं संभव होई।
फिर क्यों हम इतने बेचैन।
हमको नहींपलभर भी चैन।
धन लालच में बुरे फंसे है।
गर्दन तक पंक में धंसे है।
परिचित,मित्रों को दे धोखा।
रिश्ते,नाते भी धन का खोखा।
मानव धर्म भी छोड़ खड़ा है।
दुनिया का विस्तार बड़ा है। मिले वही ..........
नवीनतम सुविधा की खातिर।
सज्जन भी बन रहे हैं शातिर।
नवीनतम की अभिलाषा मे।
सर्वोपरि कीझूठी प्रत्याशा में।
जीवन ही मशीनी बना डाला।
मानवमन का भाव मिटाडाला।
किसीभी रिश्ते की कीमत पर भी।
चाहे बेच दें देश,गाँव, और घर भी।
जब जीवन तो एक कच्चा घड़ा है।
दुनिया का विस्तार बड़ा है। मिले वही निस्तार बड़ा है।
Saturday 3 May 2014
Bharadwajgwalior: जमीदारी का नवीनीकरण
Bharadwajgwalior: जमीदारी का नवीनीकरण: स्वास्थ्य और शिक्षा दोनों ही,बेच दिए आज दलालों को। खनिज सम्पदा सारी ही दे दी,चुनाव जितवाने वालों को। सार्वजनिक परिवहन तो है ही,उनके अपने ...
Friday 2 May 2014
नहले पर दहला
अब पुरुष यंहा ना पुरुष रहा,ना महिला ही अब महिला है।
अब तो दोनों ही एक दूजे के,बेशक नहले पर ही दहला है।
पौरुष भी अब हो चुका ख़त्म,बीबी की कमाई खा खा कर।
बाहर तो कुछ दिखला न सकें,पौरुष दिखलाते घर आकर।
बीबी अब महिला बनकर यदि,शालीनता से रहना भी चाहे।
पौरुष हीन आधुनिक पुरुष भी,उसको नहीं निभाना चाहे।
मार मार बेहूदे ताने उसको,जीना उसका दूभर कर देते है।
कैसे भी पैसे लेकर वो आये,तो सिर आँखों पर धर लेते है।
महल छोड़कर महिला भी,सड़कों पर ही आज विचरती है।
अपने ही बच्चों की परवरिश से,मानो जैसे वो अब डरती है।
बच्चों को नौकर लगा भले,खुद को तो चाकरी ही करनी है।
निरंकुश जीवन जीने वाली,अब ममता की खाली वरनी है।
ये हाल है उस आबादी का, जो ममता की छाँव के पौधे है।
अब के नौनिहालौ को मिले, ममता के नाम पर औहदे है।
अब तो दोनों ही एक दूजे के,बेशक नहले पर ही दहला है।
पौरुष भी अब हो चुका ख़त्म,बीबी की कमाई खा खा कर।
बाहर तो कुछ दिखला न सकें,पौरुष दिखलाते घर आकर।
बीबी अब महिला बनकर यदि,शालीनता से रहना भी चाहे।
पौरुष हीन आधुनिक पुरुष भी,उसको नहीं निभाना चाहे।
मार मार बेहूदे ताने उसको,जीना उसका दूभर कर देते है।
कैसे भी पैसे लेकर वो आये,तो सिर आँखों पर धर लेते है।
महल छोड़कर महिला भी,सड़कों पर ही आज विचरती है।
अपने ही बच्चों की परवरिश से,मानो जैसे वो अब डरती है।
बच्चों को नौकर लगा भले,खुद को तो चाकरी ही करनी है।
निरंकुश जीवन जीने वाली,अब ममता की खाली वरनी है।
ये हाल है उस आबादी का, जो ममता की छाँव के पौधे है।
अब के नौनिहालौ को मिले, ममता के नाम पर औहदे है।
जोगना
देश का छोड़ कंही का सर्वे,यंहा पर हम सबको भाता है।
भले बाहर जो बेगार करे,पर सम्मान यंहा वो पाता है।
विदेश से आया जूता भी,हम सबको आज लुभाता है।
पहनने वाला जूते को भी,हर परिचितको दिखलाता है।
चरितार्थ होती है हम पर ,एक कहावत जो है प्रसिद्ध।
हमें गाँव का जोगी जोगना, और अन्य गाँव का सिद्ध।
भले बाहर जो बेगार करे,पर सम्मान यंहा वो पाता है।
विदेश से आया जूता भी,हम सबको आज लुभाता है।
पहनने वाला जूते को भी,हर परिचितको दिखलाता है।
चरितार्थ होती है हम पर ,एक कहावत जो है प्रसिद्ध।
हमें गाँव का जोगी जोगना, और अन्य गाँव का सिद्ध।
Thursday 1 May 2014
Bharadwajgwalior: जमीदारी का नवीनीकरण
Bharadwajgwalior: जमीदारी का नवीनीकरण: स्वास्थ्य और शिक्षा दोनों ही,बेच दिए आज दलालों को। खनिज सम्पदा सारी ही दे दी,चुनाव जितवाने वालों को। सार्वजनिक परिवहन तो है ही,उनके अपने ...
जमीदारी का नवीनीकरण
स्वास्थ्य और शिक्षा दोनों ही,बेच दिए आज दलालों को।
खनिज सम्पदा सारी ही दे दी,चुनाव जितवाने वालों को।
सार्वजनिक परिवहन तो है ही,उनके अपने घरवालों का।
निजीकरण की ओट में अब है,सड़को परराज दलालों का।
पहले जमींदार होते थे खेतों के,वो राहोंपर काविज हैआज।
सस्ता अनाज और भीख दे रहे,जिससे न उठे कोई आवाज।
बिजली,पानी और हवा भी अब,है इनके ही लोगो के हाथो में।
समाजवाद अरु गरीबहित तो है,मात्र अब इनके जज्वातो में।
यदि यही हाल रहता है आगे ,तो एक दिन ऐसा भी आएगा।
नव जमीदारों की इच्छा से,ही आम आदमी सांस ले पायेगा।
खनिज सम्पदा सारी ही दे दी,चुनाव जितवाने वालों को।
सार्वजनिक परिवहन तो है ही,उनके अपने घरवालों का।
निजीकरण की ओट में अब है,सड़को परराज दलालों का।
पहले जमींदार होते थे खेतों के,वो राहोंपर काविज हैआज।
सस्ता अनाज और भीख दे रहे,जिससे न उठे कोई आवाज।
बिजली,पानी और हवा भी अब,है इनके ही लोगो के हाथो में।
समाजवाद अरु गरीबहित तो है,मात्र अब इनके जज्वातो में।
यदि यही हाल रहता है आगे ,तो एक दिन ऐसा भी आएगा।
नव जमीदारों की इच्छा से,ही आम आदमी सांस ले पायेगा।
Sunday 27 April 2014
Bharadwajgwalior: जिज्ञासा
Bharadwajgwalior: जिज्ञासा: जिज्ञाशा है संस्कार और कानून में, क्या है? ज्यादा कारगर। कानून तो बदल भी जाता है,संस्कार तो रहते ह...
Thursday 24 April 2014
Bharadwajgwalior: ईश्वर
Bharadwajgwalior: ईश्वर: सनातन धर्म में चरित्र की पूजा हुई है ,मर्यादित जीवन शैली ही सनातन धर्म है/ भगवान राम की पूजा हमारे धर्म में की जाती है,उन्ही का नाम मर्यादा...
ईश्वर
सनातन धर्म में चरित्र की पूजा हुई है ,मर्यादित जीवन शैली ही सनातन धर्म है/ भगवान राम की पूजा हमारे धर्म में की जाती है,उन्ही का नाम मर्यादा पुरुषोत्तम भी है/ जबकि उन्ही के पिता श्री दशरथ जी को कोई नहीं पूजता/ अर्थात सनातन धर्म में चरित्र और मर्यादा ही भगवान है/
Sunday 20 April 2014
मक्कारों की नाव
चुनाव तो चुनाव है,बेकार,मक्कारो की नाव है/
जो किसी काम के नहीं होते,
वर्षोँ टिकिट को पांव हैं धोते,
टिकिट से नाव पर चढ़ जाते,
बेकारों में वो आगे बढ़ जाते,
जिनके सहारे आगे बढ़े,उनको ही देते घाव है/
चुनाव तो चुनाव … ..........
इसमे मतदाता भी है भाव खाता,
जाति,धर्म में एकता दिखलाता ,
जो भले सगे भाई से लट्ठ चलाता,
पर इसकी गफलत में आ जाता ,
खुद ही जीत रहे हों जैसे देते मूंछों पर ताव है/
चुनाव तो चुनाव। ..........
कुछ तो मत की कीमत लेते है,
प्रलोभन में अपना मत देते है,
भले बुरे का न कोई करे विचार,
कुछ तो भूले ही वैठे है अधिकार
बेकारों के भी इस तरह बढ़ा देते वो भाव है/
चुनाव तो चुनाव..............
एक बार जो चढ़ गया नाव,
फिर नहीं उसके मिलते भाव,
सात पीढ़ियाँ जाती है संवर ,
देश में चल रहा है यही भँवर,
जिसमे हर बार डूबती मतदाता की ही नाव है/
चुनाव तो चुनाव ………
जो किसी काम के नहीं होते,
वर्षोँ टिकिट को पांव हैं धोते,
टिकिट से नाव पर चढ़ जाते,
बेकारों में वो आगे बढ़ जाते,
जिनके सहारे आगे बढ़े,उनको ही देते घाव है/
चुनाव तो चुनाव … ..........
इसमे मतदाता भी है भाव खाता,
जाति,धर्म में एकता दिखलाता ,
जो भले सगे भाई से लट्ठ चलाता,
पर इसकी गफलत में आ जाता ,
खुद ही जीत रहे हों जैसे देते मूंछों पर ताव है/
चुनाव तो चुनाव। ..........
कुछ तो मत की कीमत लेते है,
प्रलोभन में अपना मत देते है,
भले बुरे का न कोई करे विचार,
कुछ तो भूले ही वैठे है अधिकार
बेकारों के भी इस तरह बढ़ा देते वो भाव है/
चुनाव तो चुनाव..............
एक बार जो चढ़ गया नाव,
फिर नहीं उसके मिलते भाव,
सात पीढ़ियाँ जाती है संवर ,
देश में चल रहा है यही भँवर,
जिसमे हर बार डूबती मतदाता की ही नाव है/
चुनाव तो चुनाव ………
Bharadwajgwalior: प्रतिज्ञा
Bharadwajgwalior: प्रतिज्ञा: आज मातृत्व दिवस है। हम मेंसे शायद कोई भी ऐसा नहीं होगा जो अपनी माँ के प्रति कृतज्ञ न हो,उनका आदर न करता हो,चाहे उसकी माँ की छत्रछाया अभी बर...
Saturday 19 April 2014
सबसे बड़ी योग्यता
क्या सच को झुठला सकते हैं?
क्या झूठी खबरें बनवा सकते हैं?
बेइज्जती पर भी मुश्करा सकते हैं?
मित्रों को भी भरमा,मरवा सकते हैं?
क्या माँ की झूठी कसमे खा सकते है?
बिना दुःख केआँखों में आंसू ला सकते हैं?
क्या अन्य कुछ करने लायक तोआप नहीं हैं?
चिंता न करें आप निश्चित ही नेता तो बन सकते हैं!
क्या झूठी खबरें बनवा सकते हैं?
बेइज्जती पर भी मुश्करा सकते हैं?
मित्रों को भी भरमा,मरवा सकते हैं?
क्या माँ की झूठी कसमे खा सकते है?
बिना दुःख केआँखों में आंसू ला सकते हैं?
क्या अन्य कुछ करने लायक तोआप नहीं हैं?
चिंता न करें आप निश्चित ही नेता तो बन सकते हैं!
Friday 18 April 2014
व्यस्त युवा
आज का युवा तो वक्त सजने मे, ज्यादा ही जाया करता है /
युवा लड़की हो या फिर लड़का,अपना भेष ही बनाया करता है /
विश्वास करो मुझपर कहकर ,माँ बाप को भरमाया करता है /
धोखे से भी पहुंच जाये श्मशान,तो मोबाइल चलाया करता है/
युवा लड़की हो या फिर लड़का,अपना भेष ही बनाया करता है /
विश्वास करो मुझपर कहकर ,माँ बाप को भरमाया करता है /
धोखे से भी पहुंच जाये श्मशान,तो मोबाइल चलाया करता है/
Wednesday 17 July 2013
हम जबाब दे
गूँज रहा है वाक्य आज ये, दोषी है कौन ?
सभी अनसुना इसे कर रहे,रह कर मौन।
मौन रहना भी तो,अपने आप में एक दोष है।
दोषी है हर शख्स यंहा, इतने पर भी खामोश है।
नेता,अधिकारी,व्यवसायी,मजदूर और किसान।
पत्रकार,शिक्षक ही क्या आज सभी आम इन्सान।
मौन परस्ती धारण करके सभी कर रहे भ्रष्टाचार।
दफनाकर कर्तव्यबोध को जीवन बना रहे व्यापार।
ख़ामोशी का भी होता अपना ही गुप्त एक कारण है।
आदिकाल से दोषी करता आया ही मौन धारण है।
मात्र रुपये का लेनदेन ही नहीं होता है भ्रष्टाचार।
नैतिक पथ से भ्रमित आचरण का बेटा है भ्रष्टाचार।
अपनी सुविधा की खातिर हर व्यक्ति पंक्ति है तोड़ रहा।
अन्य अपेक्षा ही क्या?पारिवारिक कर्तव्य ही है छोड़ रहा।
छोटी छोटी कडियों से ही जैसे बन जाती है जंजीर।
कर्तव्य हीन होने से ही,है बिगड़ी सामाजिक तश्वीर.
जितना मौका मिलता है,वो उतनी सुविधा ले रहा है।
इस तश्वीर का दोषी कौन? जबाब कोई नहीं दे रहा है।
सभी अनसुना इसे कर रहे,रह कर मौन।
मौन रहना भी तो,अपने आप में एक दोष है।
दोषी है हर शख्स यंहा, इतने पर भी खामोश है।
नेता,अधिकारी,व्यवसायी,मजदूर और किसान।
पत्रकार,शिक्षक ही क्या आज सभी आम इन्सान।
मौन परस्ती धारण करके सभी कर रहे भ्रष्टाचार।
दफनाकर कर्तव्यबोध को जीवन बना रहे व्यापार।
ख़ामोशी का भी होता अपना ही गुप्त एक कारण है।
आदिकाल से दोषी करता आया ही मौन धारण है।
मात्र रुपये का लेनदेन ही नहीं होता है भ्रष्टाचार।
नैतिक पथ से भ्रमित आचरण का बेटा है भ्रष्टाचार।
अपनी सुविधा की खातिर हर व्यक्ति पंक्ति है तोड़ रहा।
अन्य अपेक्षा ही क्या?पारिवारिक कर्तव्य ही है छोड़ रहा।
छोटी छोटी कडियों से ही जैसे बन जाती है जंजीर।
कर्तव्य हीन होने से ही,है बिगड़ी सामाजिक तश्वीर.
जितना मौका मिलता है,वो उतनी सुविधा ले रहा है।
इस तश्वीर का दोषी कौन? जबाब कोई नहीं दे रहा है।
Monday 8 July 2013
हमारा गिरेबां
हमने ही बदले है अपने सारे सामाजिक मापदण्ड।
असीमित धन की लालसा की लपटे हो रही है प्रचंड।
नाम और सम्मान दोनों को ही धन से जोड़ दिया है।
धनी बनो येनकेन सबको स्वतन्त्र छोड़ दिया है।
जीविकोपार्जन उपरांत मानव चाहता है सम्मान सुख।
इसीके लिए वो हो रहा है आज सब सिध्दांतो से विमुख।
धन के लिए आज सभी सिध्दान्तो का अंत हो रहा है।
सिध्दान्तवादी तो आज गुमनामी के अंधेरो में खो रहा है।
सिध्दान्ताचरण तो गुमनामी और दुत्कार दिला रहा है।
ऐसे भ्रष्टाचरण की घुट्टी तो समाज ही पिला रहा है।
भ्रष्टतम लोगो का सार्वजनिक सम्मान हम कर रहे है
ऐसे लोगों से अपने सम्बन्धो की आज डींगे भर रहे है।
सिर्फ धनबल से ही आज सम्मान सुख मिल रहा है।
इसीलिये आज भ्रष्टाचार का नित नया फूल खिल रहा है।
दल संसद तक में भेज रहे अभिनय ही जिनका धंधा है।
या फिर उसको भेज रहे जो दे सकता ज्यादा चन्दा है।
सोचो ऐसे में भी फिर क्यों कोई ये सदाचार अपनाएगा।
हर होशियार तो कैसे भी सम्मान की जुगत लगाएगा।
कानून तो हमारा सदा से ही सिर्फ शासन का हथियार है।
वो हथियार चले कैसे अब जब शासक ही भ्रष्टाचार है।
भ्रष्टाचार की विजय के भी उत्तरदायी हम और आप है।
क्योंकि सामाजिक उपेक्षा कानूनी दण्डो का भी बाप है।
पर उसका सहारा हम आज जरा भी नहीं ले पा रहे है।
भ्रष्टाचार को कोसते भ्रष्टाचारियो को पलके बिछा रहे है।
असीमित धन की लालसा की लपटे हो रही है प्रचंड।
नाम और सम्मान दोनों को ही धन से जोड़ दिया है।
धनी बनो येनकेन सबको स्वतन्त्र छोड़ दिया है।
जीविकोपार्जन उपरांत मानव चाहता है सम्मान सुख।
इसीके लिए वो हो रहा है आज सब सिध्दांतो से विमुख।
धन के लिए आज सभी सिध्दान्तो का अंत हो रहा है।
सिध्दान्तवादी तो आज गुमनामी के अंधेरो में खो रहा है।
सिध्दान्ताचरण तो गुमनामी और दुत्कार दिला रहा है।
ऐसे भ्रष्टाचरण की घुट्टी तो समाज ही पिला रहा है।
भ्रष्टतम लोगो का सार्वजनिक सम्मान हम कर रहे है
ऐसे लोगों से अपने सम्बन्धो की आज डींगे भर रहे है।
सिर्फ धनबल से ही आज सम्मान सुख मिल रहा है।
इसीलिये आज भ्रष्टाचार का नित नया फूल खिल रहा है।
दल संसद तक में भेज रहे अभिनय ही जिनका धंधा है।
या फिर उसको भेज रहे जो दे सकता ज्यादा चन्दा है।
सोचो ऐसे में भी फिर क्यों कोई ये सदाचार अपनाएगा।
हर होशियार तो कैसे भी सम्मान की जुगत लगाएगा।
कानून तो हमारा सदा से ही सिर्फ शासन का हथियार है।
वो हथियार चले कैसे अब जब शासक ही भ्रष्टाचार है।
भ्रष्टाचार की विजय के भी उत्तरदायी हम और आप है।
क्योंकि सामाजिक उपेक्षा कानूनी दण्डो का भी बाप है।
पर उसका सहारा हम आज जरा भी नहीं ले पा रहे है।
भ्रष्टाचार को कोसते भ्रष्टाचारियो को पलके बिछा रहे है।
Sunday 30 June 2013
मेरा छद्म नकारापन
मैं जहाँ तक सोच समझ पाया हूँ, वो अपने विचार आप सभी भाई बहनों के साथ साझा कर रहा हूँ। और आप सबसे अपने विचार के बारे में जानना चाहता हूँ। मैने विचार करके देखा तो पाया,कि मैं अपना ज्यादा वक्त इस विचार में जाया करता हूँ,कि अमुक व्यक्ति ने ये नहीं किया, वो नहीं किया।या उसे ऐसा नहीं करना चाहिए, या वैसा करना चाहिए। जबकि दूसरे का कर्तव्य उसके करने पर निर्भर करता है,वो मेरे वश में नहीं है।मेरे वश में सिर्फ वही है जो में करना चाहू, मगर मैं मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, उसपर विचार बहुत ही कम समय करता हूँ। अतः परोक्ष रूप से मेरा अधिक समय जो में नहीं कर सकता उसमे जाया करता हूँ, और जो में करसकता हूँ, उसमे बहुत कम समय देता हूँ। अर्थात सब जानते हुए भी,उसीमें समय बर्वाद करना,जो में नहीं कर सकता।क्या मेरा छद्म नकारापन नहीं है? कृपया हाँ या ना में जबाब देने का कष्ट जरूर करियेगा। प्रतीक्षा में ..............
Thursday 20 June 2013
परिणाम
उत्तराँचल की उथल-पुथल या हो समुद्र की सुनामी।
जिम्मेदार स्वयं हम हैं दें वेशक ही शिव को बदनामी।
समदर्शी शिवजी है अनंत किसी पर अन्याय नहीं सहते।
जैसा करोगे वैसा भरोगे वो नहीं किसी की भी हैं कहते।
अपनी वैज्ञानिक उन्नति की खोखली गलतफहमी से।
उजाड़ रहे हैं आज प्रकृति को देखो कितनी बेरहमी से।
कर-कर खोखली धरती माँ को केंद्र बिंदु हैं बिगाड़ रहे।
आत्म मुग्ध होकर हम मन में उन्नति के झंडे गाड़ रहे।
प्रकृति को कर तहस-नहस हम खुद को चैन चाहते हैं।
बैर जिससे हम ईजाद करे उसी से सुरक्षा लेन चाहते हैं।
यंहा कूटनीति नहीं चल सकती कितने भी होजायें उन्नत।
उजाड़ प्रकृति को बेरहमी से घर को बेशक बनाये जन्नत।
सारी वैज्ञानिक क्षमता को पल भर की प्रलय मिटा देगी।
मदहोश मानव को तो प्रकृति पलभर में ही धूल चटा देगी।
अन्न के साथ घुन पिसने की तो एक पुरानी ही कहावत है।
कुकर्मी तो सिर्फ मानव है पर अन्य जीवो की भी आफत है।
पर आधुनिक उन्नत मानव को जीवो से क्या लेनादेना है।
उसके लिए सम्पूर्ण प्रकृति ही आज तो मात्र खिलौना है।
भौतिकता में लीन उसे नहीं कोई भी उपदेश सुहाता है।
सुविधा हेतु माँ बाप को भी व्रद्धास्रम छोड़ जो आता है।
मदहोश मानव के इस आचरण का एक ही परिणाम है।
आज नहीं तो कल सही होना निश्चित ही काम तमाम है।
जिम्मेदार स्वयं हम हैं दें वेशक ही शिव को बदनामी।
समदर्शी शिवजी है अनंत किसी पर अन्याय नहीं सहते।
जैसा करोगे वैसा भरोगे वो नहीं किसी की भी हैं कहते।
अपनी वैज्ञानिक उन्नति की खोखली गलतफहमी से।
उजाड़ रहे हैं आज प्रकृति को देखो कितनी बेरहमी से।
कर-कर खोखली धरती माँ को केंद्र बिंदु हैं बिगाड़ रहे।
आत्म मुग्ध होकर हम मन में उन्नति के झंडे गाड़ रहे।
प्रकृति को कर तहस-नहस हम खुद को चैन चाहते हैं।
बैर जिससे हम ईजाद करे उसी से सुरक्षा लेन चाहते हैं।
यंहा कूटनीति नहीं चल सकती कितने भी होजायें उन्नत।
उजाड़ प्रकृति को बेरहमी से घर को बेशक बनाये जन्नत।
सारी वैज्ञानिक क्षमता को पल भर की प्रलय मिटा देगी।
मदहोश मानव को तो प्रकृति पलभर में ही धूल चटा देगी।
अन्न के साथ घुन पिसने की तो एक पुरानी ही कहावत है।
कुकर्मी तो सिर्फ मानव है पर अन्य जीवो की भी आफत है।
पर आधुनिक उन्नत मानव को जीवो से क्या लेनादेना है।
उसके लिए सम्पूर्ण प्रकृति ही आज तो मात्र खिलौना है।
भौतिकता में लीन उसे नहीं कोई भी उपदेश सुहाता है।
सुविधा हेतु माँ बाप को भी व्रद्धास्रम छोड़ जो आता है।
मदहोश मानव के इस आचरण का एक ही परिणाम है।
आज नहीं तो कल सही होना निश्चित ही काम तमाम है।
Tuesday 18 June 2013
टूटा अंकुश
काम,क्रोध,मद,लोभ,मन।
तहस नहस कर देते जीवन।
जिनमे काम का स्थान पहला।
जो विवेक को भी लेता बहला।
सफल इसपर सिर्फ अंकुश एक।
अगर लगी हो संस्कारो की टेक।
वो भी संस्कार हो सब स्तर के। आध्यात्म,लोक,समाज अरु घरके।
घर के संस्कार थे रिश्ते बतलाते।
निर्वहन उनका थे समाज कराते।
मानस में अंकित रहते थे रिश्ते।
रक्षक जिनके आध्यात्मक फ़रिश्ते।
हर स्त्री पुरुष से था एक नाता।
जो मर्यादा की था याद दिलाता।
पाप का भय था इस पर भारी।
सिर्फ पत्नी होती थी एक नारी।
संस्कारो के स्तर ही टूट रहे है।
संस्कार तो पीछे ही छूट रहे है।
आध्यात्म के डंडे भी टूट रहे है।
चुपके उजागर अस्मत भी लूट रहे है।
मनोवेगों का राजा उन्मुक्त हो रहा है।
अँधा काम विवेक पर हावी हो रहा है।
तभी तो मानव धर्म भी खो रहा है।
लगता है मानव फिर जंगली हो रहा है।
तहस नहस कर देते जीवन।
जिनमे काम का स्थान पहला।
जो विवेक को भी लेता बहला।
सफल इसपर सिर्फ अंकुश एक।
अगर लगी हो संस्कारो की टेक।
वो भी संस्कार हो सब स्तर के। आध्यात्म,लोक,समाज अरु घरके।
घर के संस्कार थे रिश्ते बतलाते।
निर्वहन उनका थे समाज कराते।
मानस में अंकित रहते थे रिश्ते।
रक्षक जिनके आध्यात्मक फ़रिश्ते।
हर स्त्री पुरुष से था एक नाता।
जो मर्यादा की था याद दिलाता।
पाप का भय था इस पर भारी।
सिर्फ पत्नी होती थी एक नारी।
संस्कारो के स्तर ही टूट रहे है।
संस्कार तो पीछे ही छूट रहे है।
आध्यात्म के डंडे भी टूट रहे है।
चुपके उजागर अस्मत भी लूट रहे है।
मनोवेगों का राजा उन्मुक्त हो रहा है।
अँधा काम विवेक पर हावी हो रहा है।
तभी तो मानव धर्म भी खो रहा है।
लगता है मानव फिर जंगली हो रहा है।
Friday 14 June 2013
उलझन
मुझको तो लगता है यारो,ये जीवन तो निरर्थक जाना है।
विरासत में संस्कार मिले,वो मुश्किल हो रहे निभाना है।
लगता ही नहीं यकींन है अब,बे-नाम कभी मर जाऊँगा।
विख्यात तो ना होने लायक,कुख्यात भी ना हो पाऊंगा।
कुख्यात तो भी हो जाते लुटेरे,जब लूट एक अपराध था।
हो जाते थे हत्यारे नामचीन,जब ह्त्या एक अपवाद था।
व्यभिचारी भी पहचाने जाते,जबतक चरित्र की कीमत थी।
बेईमानो को मिलता अपयश,जबतक ईमान की नीयत थी। धोखा,दगा,झूठ,चोरी,ये सब तो अति छोटे छोटे साधन है।
अब अधिकाँश की सम्रद्धि के, येसब ही तो संसाधन हैं।
इनसबके सहारे भी अबतो,कुख्यात भी नहीं हो पाऊंगा।
एकाग्रचित सब ये कर भी लू,तो भी इतना ही कर पाऊंगा।
गुमनाम तो रहना ही होगा,पर राजनीति से जुड़ जाऊँगा।
लगता है इस जीवन में तो,सपना अधूरा लेकर ही जाऊँगा।
विरासत में संस्कार मिले,वो मुश्किल हो रहे निभाना है।
लगता ही नहीं यकींन है अब,बे-नाम कभी मर जाऊँगा।
विख्यात तो ना होने लायक,कुख्यात भी ना हो पाऊंगा।
कुख्यात तो भी हो जाते लुटेरे,जब लूट एक अपराध था।
हो जाते थे हत्यारे नामचीन,जब ह्त्या एक अपवाद था।
व्यभिचारी भी पहचाने जाते,जबतक चरित्र की कीमत थी।
बेईमानो को मिलता अपयश,जबतक ईमान की नीयत थी। धोखा,दगा,झूठ,चोरी,ये सब तो अति छोटे छोटे साधन है।
अब अधिकाँश की सम्रद्धि के, येसब ही तो संसाधन हैं।
इनसबके सहारे भी अबतो,कुख्यात भी नहीं हो पाऊंगा।
एकाग्रचित सब ये कर भी लू,तो भी इतना ही कर पाऊंगा।
गुमनाम तो रहना ही होगा,पर राजनीति से जुड़ जाऊँगा।
लगता है इस जीवन में तो,सपना अधूरा लेकर ही जाऊँगा।
पिताश्री
पित्र वर्ग के प्रथम प्रतिनिधि,परम पूज्य पिताजी हैं।
पहचान,नाम,अधिकार उन्हीसे,सुरक्षा कवच पिताजी हैं।
संतान के पैदा होते ही,बनगए जिम्मेदार पिताजी हैं।
हर काम करें संतान की खातिर,वो कामगार पिताजी हैं।
सुख का भी कर त्याग, चाहते सुखी संतान पिताजी हैं।
संतान से अपने अरमानों को,चाहें साकार पिताजी हैं।
संतान की खातिर हर मुश्किल,लेने तैयार पिताजी हैं।
संतान से अपने अरमानों को,चाहते साकार पिताजी हैं।
संतान भले ही बूढ़ी हो,पर समझें ना-समझ पिताजी हैं।
कर सावधान हर वक्त हमें, खुद चिंताग्रस्त पिताजी हैं।
परमपिता के बाद दूसरे,हित साधक पूज्य पिताजी हैं।
संतान सौंप दे जीवन उनको,फिर भी साहूकार पिताजी हैं।
पितृपक्ष त्यौहार अनूठा, जिससे याद आते रहें पिताजी हैं।
पहचान,नाम,अधिकार उन्हीसे,सुरक्षा कवच पिताजी हैं।
संतान के पैदा होते ही,बनगए जिम्मेदार पिताजी हैं।
हर काम करें संतान की खातिर,वो कामगार पिताजी हैं।
सुख का भी कर त्याग, चाहते सुखी संतान पिताजी हैं।
संतान से अपने अरमानों को,चाहें साकार पिताजी हैं।
संतान की खातिर हर मुश्किल,लेने तैयार पिताजी हैं।
संतान से अपने अरमानों को,चाहते साकार पिताजी हैं।
संतान भले ही बूढ़ी हो,पर समझें ना-समझ पिताजी हैं।
कर सावधान हर वक्त हमें, खुद चिंताग्रस्त पिताजी हैं।
परमपिता के बाद दूसरे,हित साधक पूज्य पिताजी हैं।
संतान सौंप दे जीवन उनको,फिर भी साहूकार पिताजी हैं।
पितृपक्ष त्यौहार अनूठा, जिससे याद आते रहें पिताजी हैं।
Sunday 2 June 2013
प्रश्न
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
प्रश्न बहुत छोटा है,
पर बहुत ही अनूठा है,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
परिवार को जिए नहीं,
समाज को कुछ किये नहीं,
आदर्श भी कुछ दिए नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
हो न सके माँ बाप के,
सपने बुने अपने आपके,
वो भी पूरे हुए नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
चैन नहीं एक पल,
हम ये करेंगे कल,
काम आज ख़त्म नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
कल की आस में,
धन की तलाश में,
शौहरत की प्यास में,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
रातों-रात जागते,
दिनभर रहे भागते,
आज तक न पहुंचे कहीं,
समाधान नही मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
प्रश्न बहुत छोटा है,
पर बहुत ही अनूठा है,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
परिवार को जिए नहीं,
समाज को कुछ किये नहीं,
आदर्श भी कुछ दिए नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
हो न सके माँ बाप के,
सपने बुने अपने आपके,
वो भी पूरे हुए नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
चैन नहीं एक पल,
हम ये करेंगे कल,
काम आज ख़त्म नहीं,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
कल की आस में,
धन की तलाश में,
शौहरत की प्यास में,
समाधान नहीं मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
रातों-रात जागते,
दिनभर रहे भागते,
आज तक न पहुंचे कहीं,
समाधान नही मिलता है।
क्यों ये जीवन फूल खिलता है?
Thursday 30 May 2013
व्यापार
अगर जीवन में कोई सच्चा मित्र मिल जाता है।
ता-उम्र कोई भी मित्र का कर्ज नहीं चुका पाता है।
अजीव रिश्ता है जो जीव-जंतुओ में भी पाया जाता है।
पर आज इस रिश्ते को हर कोई नहीं निभा पाता है।
मित्रता तभी सार्थक है जब मित्र के लिए जीना चाहोगे।
अपनी हर मुश्किल में फिर उसे भी साथ में पाओगे।
दुनिया के सारे रिश्तों को आज दौलत ही खा रही है।
वही दौलत मित्रता को भी आज बट्टा लगाना चाह रही है।
मगर रिश्तो की कीमत भी दौलत में नहीं हो सकती।
हमें कोई भी रिश्ता कितनी भी दौलत नहीं दे सकती।
दौलत की खातिर गर कोई रिश्ता बनाया भी जाता है।
वो निश्चित ही दौलत के साथ ही ख़त्म हो जाता है।
दौलत की खातिर मानव नित नए रिश्ते तो बनता है।
मानव ही वो जीव है जो रिश्तो को सबसे कम निभाता है।
माँ और मित्र का रिश्ता तो पशु-पक्षियों में भी होता है।
वो मित्र की खातिर देखा गया जान को भी खोता है।
मगर मानव मित्रता को भी आज नकार रहा है।
मौका मिलते ही मित्रता की कीमत डकार रहा है।
दौलत की अभिलाषा तो इस दुनियां में अनन्त है।
इसकी खातिर रिश्तो का फिर क्यों करें हम अंत है।
सारी दौलत के बदले भी यदि रिश्ते बरकरार रहते हैं।
तो भी लाभ का ही सौदा है ये आपसे हम कहते हैं।
महाशक्ति
कोमलता से कठोरता हमेशा से ही हारती आई है।
भले ही क्षणिक विजय कठोरता ने दिखलाई है।
कठोरता ने तो वैसे हरदम ही मुंह की खाई है।
अंततः कोमलता ही हर बाजी मारती आई है।
नम्रता से कठोर क्रोध हरदम ही हारजाता है।
अंततः नम्रता के सामने घुटने टेक गिडगिडाता है।
काँटों की कठोरता ही बागड़ में चौकीदार बनाती है।
फूलों की कोमलता ही है जो सुर मस्तक पर चढ़वाती है।
शिशुओ की कोमलता ही उनको हर गोदी में बिठवाती है।
जीवन की कठोरता ही है जो चुपके वृद्धावस्था ले आती है।
मादा तो नियति में हमेशा कोमलता की प्रतिमूर्ति रही है।
प्रकृति तो हर वक्त मादा वर्ग से ही स्वस्फूर्ति रही है।
मादा ही नियति को हरदम आगे बढ़ाती आई है।
जीव जंतु या फिर हो मानव नस्ल बचाती आई है।
प्रथम निबाला हर नवजात को मादा से ही मिलता आया है।
मादा की कोमलता से ही स्रष्टि का हर फूल खिलता आया है।
पर मानव समाज में मादा का महत्व कम ही होता जा रहा है।
जानकर भी इसका महत्व मानव समाज कठोर होता जा रहा है।
अपना बजूद खोकर समाज एकदिन जरूर होश में आएगा।
महाशक्ति के आगे षाष्टान्ग होकर फिर से वो गिडगिडायेगा।
भले ही क्षणिक विजय कठोरता ने दिखलाई है।
कठोरता ने तो वैसे हरदम ही मुंह की खाई है।
अंततः कोमलता ही हर बाजी मारती आई है।
नम्रता से कठोर क्रोध हरदम ही हारजाता है।
अंततः नम्रता के सामने घुटने टेक गिडगिडाता है।
काँटों की कठोरता ही बागड़ में चौकीदार बनाती है।
फूलों की कोमलता ही है जो सुर मस्तक पर चढ़वाती है।
शिशुओ की कोमलता ही उनको हर गोदी में बिठवाती है।
जीवन की कठोरता ही है जो चुपके वृद्धावस्था ले आती है।
मादा तो नियति में हमेशा कोमलता की प्रतिमूर्ति रही है।
प्रकृति तो हर वक्त मादा वर्ग से ही स्वस्फूर्ति रही है।
मादा ही नियति को हरदम आगे बढ़ाती आई है।
जीव जंतु या फिर हो मानव नस्ल बचाती आई है।
प्रथम निबाला हर नवजात को मादा से ही मिलता आया है।
मादा की कोमलता से ही स्रष्टि का हर फूल खिलता आया है।
पर मानव समाज में मादा का महत्व कम ही होता जा रहा है।
जानकर भी इसका महत्व मानव समाज कठोर होता जा रहा है।
अपना बजूद खोकर समाज एकदिन जरूर होश में आएगा।
महाशक्ति के आगे षाष्टान्ग होकर फिर से वो गिडगिडायेगा।
Wednesday 29 May 2013
बे-चारा
भौतिक प्रगति की क़यामत का मारा।
भौतिक प्रगति में मदहोश होकर,
पालक पहन रहे हैं आधुनिकता का ताज।
कल भी आएगा ये भूलकर,
वो तो सिर्फ देख रहे हैं अपना आज।
रिश्तों को दरकिनार कर,
उसे हर रिश्ते सेदूर कर रहे हैं।
निर्जीव बस्तुओं से भले,
उसका दामन भर रहे हैं।
उसके दादा-दादी का दर्जा आज,
नवीनतम दूरदर्शन को दे रहे हैं।
बे-चारे बच्चे क्या करें,
उसी से संस्कारों की शिक्षा ले रहे हैं।
हरदम अकेले रहते हुए,
रिश्तों का मर्म ही नहीं समझ पा रहे हैं।
रिश्तों के नाम पर बे-चारे सिर्फ,
अंकल-आंटी ही जान पा रहे हैं।
मां का प्यार भी मातृत्व छुट्टियों में ही मिल रहा है।
बिषम परिस्थित में बेचारो का जीवन फूल खिल रहा है।
जन्म लेते ही बाज़ार का सब कुछ तो खूब खिलाया जा रहा है।
पर बेचारे को मां का दूध ही नसीब नहीं हो पा रहा है।
रिश्तों से दूर निर्जीव बस्तुओं के साथ उसे रखा जा रहा है।
पालको पर तो केवल भौतिक उन्नति का नशा छा रहा है।
एकाकी बेचारा उपकरणों के साथ खेलकर बढ़ रहा है।
आगे की सामजिक जिंदगी का पाठ भी यंही से पढ़ रहा है।
छाया से भी दूर रख रहे उसे पारिवारिक रिश्तों के प्यार की।
फिर उसीसे अपेक्षा रखेंगे सामजिक,मानवीय व्यवहार की।
देख रहा है जो बेचारा वही तो व्यवहार में ला पायेगा।
वो भी भौतिक उन्नति की खातिर
पालक को वृद्धाश्रम तक ही भिजवा पायेगा।
Monday 13 May 2013
आधार
संस्कार सामाजिक कानून की तरह हमारे समाज में लागू थे।जिन्हें मनवाने की जिम्मेदारी समाज ने पालकों को दे रखी थी।अर्थात अपनी संतान में समाज के संस्कारो का अनुसरण करने की आदत डालना हर नागरिक का कर्तव्य था।अगर वो अपने कर्तव्य को पूरा करने में असफल होता,तो उसको भी समाज के दण्ड का भागी होना पड़ता था। यही व्यवस्था परिवार के स्तर पर भी थी। अर्थात सामजिक कानून (संस्कार) व्यवस्था का निर्माण कर्तव्य को आधार बना कर की गई थी। अतः हर व्यक्ति कर्तव्य परायण बनने का प्रयास करता था। और कर्तव्य पूरे करने वाले को अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाते थे। और कभीकभार जरुरत पड़ने पर सामाजिक ढ़ांचा भी,कर्तव्य परायण लोगों को अधिकार दिलाने को वचनवद्ध रहता था। जिससे सामजिक अपराध नगण्य होते थे।कालांतर में सामाजिक व्यवस्था का एक तरह से अपहरण हो गया,और वो कुछ लोगों के हाथ में आगई।जिससे सामाजिक दण्ड प्रभावित होने लगा वंही से संस्कार कमजोर होने का सिलसिला चालू हो गया। और पालको ने भी धीरे धीरे संस्कार डालने के अपने कर्तव्य से मुहं मोडना शुरू कर दिया।और आज तो उस कर्तव्य की इति श्री ही हो गई। फिर भी कुछ पुराने संस्कार आज भी जिन्दा हैं,और उन्हें मनवाने को किसी क़ानून या दण्ड विधान की जरूरत नहीं है। काश हमारा जो क़ानून है, जिसका आधार अधिकार को बनाया गया है, उसका आधार कर्तव्य को बनाया होता।और अपने नागरिक कर्तव्य की अनदेखी करनेवाले को सख्त दण्ड का प्रावधान होता,तो शायद हमारे संस्कार और समाज भी जिन्दा बने रहते और अपराध भी कम होते। मगर हमारे कानून में नागरिक कर्तव्य के ऊपर तो गौर करने की बात बहुत दूर की कौड़ी है।जब हमारे आका लोक सेवको के कर्तव्य पालन को भी अनिवार्य करने की सही व्यवस्था नहीं कर पाये हैं। हमारा क़ानून तो सिर्फ ये बताने को बनाया गया है की हमें क्या क्या मिलना चाहिए। अतः आज थोड़ी भी समझ आने पर हर व्यक्ति घर परिवार और समाज में भी हमें जो मिल रहा है,उसका कृतज्ञ होने की वजाय और ज्यादा लेने की अपेक्षा में कोशिश में लगा रहता है।आज संतान अपने पालकों की भी कृतज्ञ होने की वजाय,उनकी इच्छापूर्ति में रह गई कमी को(अपना अधिकार मान) प्राप्त करने को उन्ही से संघर्ष करने को तैयार है। जिससे सौहार्द्र बढ़ने की वजाय ईर्ष्या बढ़ रही है। और हम आज परिवार,समाज,सरकार और देश से भी ज्यादा से ज्यादा अधिकार लेने की कोशिश में,अपने कर्तव्यों को तो भूलते ही जा रहे हैं।जिससे सारी व्यवस्था ही चरमरा रही है। काश हमारी क़ानून व्यवस्था अधिकारों की वजाय कर्तव्यों को आधार बनाकर की गई होती। जैसे हमारी संस्कार व्यवस्था थी।
Sunday 12 May 2013
आधुनिक वन
कंक्रीट के जंगल शहर में जो शहरी मानव रह रहा है।
वन मानुष सा आचरण कर उत्पत्ति की गाथा कह रहा है।
आधुनिक शहरी और वनमानुष में बड़ा अंतर एक जरूर है।
वन मानुष तो सरल था मगर शहरी में अनजान गरूर है।
गरूर है किस बात का इसका भी कोई जबाब नहीं।
वनमानुष के तो ख्वाब थे शहरी का कोई ख्वाब नहीं।
वन मानुष तो ख्वाबों के बल शहरों तक तो आगया।
शहरी तो खुद की खातिर सारे ख्वाबों को ही खा गया।
मानुष रीति रिवाजों से ही एकल से वस्ती तक आया।
पर विशाल शहरों में रहकर शहरी मानव है भरमाया।
आनेवाली पीढ़ी की भी शहरी को नहीं कोई चिंता आज।
खुद में मस्त हो रहा है वो मानता नहीं कोई रीति रिवाज।
रीति रिवाजों को कर दरकिनार वो निजी जीवन ही जी रहा है।
सिर्फ भौतिक प्रगति के लालच में निजता का मीठा जहर पी रहा है।
शहरी मानव का पतिपत्नी का रिश्ता सिर्फ स्त्रीपुरुष का रिश्ता हो गया है।
लगता है विकसित मानव कंक्रीट के जंगलों का फिर वन मानुष हो गया है।
वन मानुष सा आचरण कर उत्पत्ति की गाथा कह रहा है।
आधुनिक शहरी और वनमानुष में बड़ा अंतर एक जरूर है।
वन मानुष तो सरल था मगर शहरी में अनजान गरूर है।
गरूर है किस बात का इसका भी कोई जबाब नहीं।
वनमानुष के तो ख्वाब थे शहरी का कोई ख्वाब नहीं।
वन मानुष तो ख्वाबों के बल शहरों तक तो आगया।
शहरी तो खुद की खातिर सारे ख्वाबों को ही खा गया।
मानुष रीति रिवाजों से ही एकल से वस्ती तक आया।
पर विशाल शहरों में रहकर शहरी मानव है भरमाया।
आनेवाली पीढ़ी की भी शहरी को नहीं कोई चिंता आज।
खुद में मस्त हो रहा है वो मानता नहीं कोई रीति रिवाज।
रीति रिवाजों को कर दरकिनार वो निजी जीवन ही जी रहा है।
सिर्फ भौतिक प्रगति के लालच में निजता का मीठा जहर पी रहा है।
शहरी मानव का पतिपत्नी का रिश्ता सिर्फ स्त्रीपुरुष का रिश्ता हो गया है।
लगता है विकसित मानव कंक्रीट के जंगलों का फिर वन मानुष हो गया है।
प्रतिज्ञा
आज मातृत्व दिवस है। हम मेंसे शायद कोई भी ऐसा नहीं होगा जो अपनी माँ के प्रति कृतज्ञ न हो,उनका आदर न करता हो,चाहे उसकी माँ की छत्रछाया अभी बरकरार हो या ईश्वर ने भले ही उठा ली हो। तो आओ आज मातृत्व दिवस पर हम सब अपनी अपनी पूज्य माँ को एक वचन दें। < माँ आपको वचन देकर, मैं आज प्रतिज्ञा करता हूँ की मैं किसी भी परिस्थिति में किसी भी ऐसे व्यक्ति,जो भ्रष्टाचारी हो या भ्रष्टाचार में सहायक हो का सार्वजनिक सम्मान नहीं करूँगा,न ही सम्मान समारोह में शामिल होऊँगा।> आपसे निवेदन है अगर आपने वचन दिया है तो अपना हाँ की टिपण्णी जरुर करें तथा अन्य कम से कम पांच लोगो से प्रतिज्ञा कराएँ। धन्यवाद
Thursday 9 May 2013
अजूबा-नाम
420 का अर्थ सभी जानते है,ये संख्यात्मक नाम है धोखाधड़ी का।
इस चरित्र का प्रत्येक कलाकार, उपयोग करता है हर घडी का।
ऐसा नहीं वो मेहनत नहीं करता हो,हर क्षण वो उसी में डूबा रहता है।
शारीरिक मेहनत के साथ ,मानसिक मेहनत सेही अजूबा करता है। धोखाधड़ी को छोड़ अन्य,गुण अवगुण का ऐसा नाम नहीं है जग में।
लगता शायद इसके अनुयायी, पैदा भी होते होंगे अदभुत भग में।
मेहनत में जरा सी चूक हुई,तो अविलम्ब ही पकडे जाते हैं।
दिन रात की मेहनत करके भी,चौराहों पर लाते घूंसे खाते हैं।
इतनी मेहनत से तो वो,निश्चित ही इज्जत से भी जी सकते हैं।
आप और हम तो थक भी जाते हैं,पर वो मेहनत से नहीं थकते हैं।
शायद वैसे भी 420 नाम इसका,रखा गया है हम सबको चेताने को। अच्छा साधन है ये इज्जत और उम्र,को दोगुनी रफ़्तार से घटाने को।
हर तरफ से ये चार से है दो करता,फिर दो से भी शून्य पर ले जाता है।
फिर भी इसके अनुयायियों को,मेहनत से भीजूते खाना ही भाता है।
मुझ जैसा अल्प बुद्धि वाला,महारथियों को क्या समझा पायेगा।
ऊपर वाला ही इन्हें सदबुद्धि दे, या जूतों का हार ही होश दिलायेगा।
इस चरित्र का प्रत्येक कलाकार, उपयोग करता है हर घडी का।
ऐसा नहीं वो मेहनत नहीं करता हो,हर क्षण वो उसी में डूबा रहता है।
शारीरिक मेहनत के साथ ,मानसिक मेहनत सेही अजूबा करता है। धोखाधड़ी को छोड़ अन्य,गुण अवगुण का ऐसा नाम नहीं है जग में।
लगता शायद इसके अनुयायी, पैदा भी होते होंगे अदभुत भग में।
मेहनत में जरा सी चूक हुई,तो अविलम्ब ही पकडे जाते हैं।
दिन रात की मेहनत करके भी,चौराहों पर लाते घूंसे खाते हैं।
इतनी मेहनत से तो वो,निश्चित ही इज्जत से भी जी सकते हैं।
आप और हम तो थक भी जाते हैं,पर वो मेहनत से नहीं थकते हैं।
शायद वैसे भी 420 नाम इसका,रखा गया है हम सबको चेताने को। अच्छा साधन है ये इज्जत और उम्र,को दोगुनी रफ़्तार से घटाने को।
हर तरफ से ये चार से है दो करता,फिर दो से भी शून्य पर ले जाता है।
फिर भी इसके अनुयायियों को,मेहनत से भीजूते खाना ही भाता है।
मुझ जैसा अल्प बुद्धि वाला,महारथियों को क्या समझा पायेगा।
ऊपर वाला ही इन्हें सदबुद्धि दे, या जूतों का हार ही होश दिलायेगा।
Wednesday 8 May 2013
सुमति-कुमति
संतोष .....से.......सौहार्द्र .....से.....परिवार ....से......समाज ....से......बस्ती .....से.....प्रदेश ....से.....देश। देशभक्ति के लिए हमें बलिदान ही करना हो ऐसा नहीं है। हम थोडा सा त्याग करके भी अपने देश को मजबूत बनाकर देशभक्ति कर सकते है।जिसके लिए हम भारतवासियों में सौहार्द्र होना चाहिए।सौहार्द्र वंही होता है जहाँ हम खुद के लिए संतोष करके दूसरे की भलाई का सोचते हैं। अतः हमें संतोष रखना चाहिए जिससे सौहार्द्र बढ़ता है। सौहार्द्र से परिवार मजबूत होते है। परिवारों से समाज मजबूत होता है,और समाज से बस्ती मजबूत होती है। मजबूत बस्तियों से मजबूत प्रदेश होते है,और मजबूत प्रदेशों वाला देश मजबूत होता ही है। अतः हमें सिर्फ अपने लिए संतोष रखना है,जिससे सब कुछ मजबूत हो सकता है।आज हम अपनी विलासिता पूरी करना चाहते है,भले ही हमारे भाई और मित्र की भी जरूरतें पूरी न हो रही हों आगे हमारी अपनी मर्जी।
सुख-दुःख
सुख और दुःख का कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता, स्वार्थ पूर्ति से सुख का अनुभव होता है,और स्वार्थ पूर्ति न होने पर दुःख का अनुभव।अनापेक्षित बस्तु या सम्मान प्राप्ति का अत्यधिक सुख होता है।और अपेक्षित बस्तु या सम्मान न मिलने पर दुःख। जहा तक मैं समझ पाया हूँ,वो मैं एक छोटे से उदाहरण से व्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ। किसी समय पर हम और आप कंही ऐसी राह पर फंस जाते है, कि वंहा कोई भी साधन उपलब्ध नहीं हो,सिवाय पैदल चलने के तेज धुप में। उसी वक्त अगर कोई साईकिल वाला व्यक्ति गुजरता है। और वो इस शर्त पर साईकिल पर अपन को बैठा लेता है, कि वो अपने को चलानी है वह बैठकर चलेगा। तब भी अपन उस व्यक्ति के आभारी होंगे, तथा साईकिल पर यात्रा में सुख का अनुभव करेंगे, साथ ही ईश्वर का धन्यबाद भी। कि वो साईकिल वाला मिला दिया। अगले दिन उसी मार्ग पर,अपन लक्जरी कार में जा रहे हो और वो कार वाला हमें ये कह कर उतार दे, कि आप इस साईकिल पर बैठकर आजाओ, ये आदमी अकेला है ये साईकिल चला लायेगा, आप तो साथ के लिए बैठ आओ। तब उसी रास्ते पर वही रास्ता और साईकिल हमको सुख देने की वजाय दुःख का कारण बन जाती है।और हम ईश्वर को कोसते है कि कहाँ से वो मिल गया। मेरे विचार में साईकिल तथा रास्ता दोनों तो निर्जीव हैं, उनका स्वभाव तो स्थिर है बदलता नहीं। तो फिर दो बार में अलग अलग अनुभव हमारी अपनी मानसिकता का ही परिणाम है। अतः सुख और दुःख का कारण भौतिक बस्तुएं या संसार नहीं, उसका कारण तो हमारा मानस है। आज की भौतिक सम्पन्नता की जो मारामारी चल रही है, जिसके लिए आज हम हर तरह के हथकंडे चाहे वो आर्थिक भ्रस्टाचार,बेईमानी हो या व्यभिचार,चरित्रहीनता को अपनाते जा रहे हैं। उससे हम कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकते, भौतिक साधनों से संपन्न हो सकते है। चूँकि भौतिक जगत की कोई सीमा नहीं है, वो अनंत है। तो प्राप्त सम्पन्नता हमें सुखी नहीं कर सकती। क्योंकि जो हम प्राप्त कर चुके होंगे उससे आगे भी अन्य भौतिक बस्तु होगी, जो अप्राप्त होगी। वही हमें दुःख देगी। अतः मेरे विचार से हमें भौतिक सम्पन्नता के लिए भी अपने समाज,परिवार और संस्कारों को सुरक्षित रखते हुए ही प्रयास करना चाहिए न कि हर कीमत पर।
Monday 6 May 2013
जीवन आधार
निःस्वार्थ प्रेम ही है जीवन का आधार, जो है सिर्फ ममत्व में कर देखा खूब विचार। कर देखा खूब विचार अन्य भी रिश्तों में, माँ जैसा नहीं है प्यार किन्ही भी फरिश्तों में। माँ का प्रेम ही नवजात का भोजन होता है। जिसके लिए जन्मते ही नवजात रोता है। हर प्राकृतिक माँ नवजात पर छिड़कती है जान भी। अनगिनत माताएं नवजात पर दे चुकी है प्राण भी। माँ को छोड़ अन्य रिश्ते तो सिर्फ, मानव जगत को ही सजाते है। माँ का रिश्ता है सम्पूर्ण प्रकृति में, अन्य रिश्ते नहीं पाए जाते है। माँ के अलावा इक अन्य भी रिश्ता है, जो पशु पक्षियों में भी पाया जाता है। मानव समांज में वो रिश्ता, मित्रता कहलाता है। मगर मित्र इस दुनिया में, हर जीवधारी को नहीं मिलते। मिलता है सच्चा मित्र तभी, जब भाग्य के पट है खुलते। माँ और सच्चे मित्र के ही, रिश्ते है सच्चे प्रेम की खान। जो अपने रिश्ते की खातिर, ले और दे भी सकते है जान। मगर मानव समाज में आज, इन रिश्तो में भी अपवाद हो रहे है। किराये की कोख से भी, नवजात आज पैदा हो रहे है। मित्रता भी समाज से अब, नदारद होती जा रही है, मानव समाज को तो सिर्फ, भौतिकता ही लुभा रही है। शुक्र है पशु पक्षियों में तो, ये रिश्ते अभी भी जिन्दा है। पशु पक्षी बन गए मानव, पर हम न बन सके परिंदा है।
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