वन मानुष से परिवार, कबीले फिर गाँव बसाये।
जब और हुए हम सभ्य,समाज अरु नगर बनाये।
बढ़ती सभ्यता के साथ हमीने शहर,राज्य बढ़ाए।
सभ्यता के साथ हमारा दायरा भी बढ़ता गया।
इसीलिए बसता भी गया शहर नित नित ही नया।
पर आज तो हम ज्यादा ही सभ्य होते जा रहे है।
वन मानुष की तरह फ्लैट को घोंसला बना रहे है।
गाँव समाज तो मिट ही रहे परिवार भी मिटा रहे है।
मौसमी पक्षियों की तरह कंही भी उड़ते जा रहे है।
खून के रिश्तों को भी हम आज खोते जा रहे हैं।
वन मानुष के पर्यायवाची ही हम शहरी होते जा रहे है।
जब और हुए हम सभ्य,समाज अरु नगर बनाये।
बढ़ती सभ्यता के साथ हमीने शहर,राज्य बढ़ाए।
सभ्यता के साथ हमारा दायरा भी बढ़ता गया।
इसीलिए बसता भी गया शहर नित नित ही नया।
पर आज तो हम ज्यादा ही सभ्य होते जा रहे है।
वन मानुष की तरह फ्लैट को घोंसला बना रहे है।
गाँव समाज तो मिट ही रहे परिवार भी मिटा रहे है।
मौसमी पक्षियों की तरह कंही भी उड़ते जा रहे है।
खून के रिश्तों को भी हम आज खोते जा रहे हैं।
वन मानुष के पर्यायवाची ही हम शहरी होते जा रहे है।
2 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (06-05-2013) फिर एक गुज़ारिश :चर्चामंच 1236 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhanyabad shastri ji
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