व्यवस्था बनी अभिशाप - जाति प्रथा आज हमारे लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है. क्योंकि आज हम न तो उस व्यवस्था को मान ही रहे हैं और न ही पूरी तरह उसे नकार ही रहे हैं.वैसे जो हमारी प्राचीन व्यवस्था थी वो किसी भी रूप में किसी के भी साथ अन्यायकारी नहीं थी. जाति निर्धारण का आधार व्यक्ति का कर्म था न की जन्म. अतः लोगो में अपने कर्म सुधार के प्रयास की चिंता रहती थी और वो अपनी क्षमता के अनुसार स्वतः प्रयास करता था. मगर कालांतर में स्वार्थ और मोह वश जाति निर्धारण का आधार जन्म को बना दिया गया. और आज हम उस व्यवस्था को सुधारने का विचार करने की वजाय,और अधिक स्वार्थ तथा मोह में पड़कर किसी अन्य व्यवस्था का विचार तक किये बिना पूर्व की व्यवस्था को नकारने की कोशिश करके सम्पूर्ण समाज में अराजकता फैला रहे हैं.उसी के परिणाम स्वरूप आज अंतर्मन में चारित्रिक और सामाजिक जबाबदेही ख़त्म हो जाने से भ्रस्टाचार, अन्याय और कदाचार बढ़ा है. क्योंकि आज समाज का विभाजन कर्म के आधार पर न होकर अर्थ के आधार पर अमीर और गरीब में हो रहा है. अतः येनकेन प्रकारेन धन कमाना ही सामाजिक उद्देश्य बन गया है. क्योंकि आज प्रतिष्ठा प्राप्ति धन के आधार पर हो रही है जो पहले कर्म के आधार पर होती थी तो कर्म सुधार ही सामाजिक प्रयास होता था . आज जो सर्वाधिक धनवान है वही सर्वाधिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर रहा है. पहले की व्यवश्था में राजा महाराजा जोकि समाज के सर्वाधिक धनी होते थे उन्हें भी कर्मशील गरीब ब्राह्मन,संतों,शिक्षकों तथा विचारकों से कम सामाजिक सम्मान मिलाता था बल्कि स्वयं वो धनवान लोग ही सम्मान करते थे.अतः जबतक सामाजिक सम्मान का आधार धन सम्पदा रहेगी तब तक कितने भी कानून बनाकर उनके भय से सामाजिक जबाबदेही पैदा नहीं की जा सकती. क्योंकि आदिकाल से ये प्राकृतिक मानवीय मनोवृत्ति है, की जीविका सञ्चालन के बाद मानव सामाजिक सम्मान के लिए लालायित रहता है. और उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है.
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