Friday 2 March 2012

मेरा विचार

                                      भारतीय विधाएं बनाम रूढ़ियाँ                          आधुनिकता के नाम पर, हम मेंसे  कतिपय शिक्षित लोग ही ज्यादातर हमारी प्राचीन सांस्कृतिक विधाओ को बड़ी आसानी से पुरानी रूढ़ियाँ कह कर उन्हें नकारते है हालाँकि ऐसा वो, तो अपनी तत्कालीन सुविधा के लिए करते है, क्योंकि हमारी समस्त प्राचीन विधाएं मानव जीवन को संयम में बांध कर जीना सिखाने के लिए बनाई गई थी. और तथाकथित आधुनिक  उछ्रंख्ल  लोग जो अपने मन पर कोई संयम नहीं रखना चाहते, वो इन्हें तोड़ने को शिक्षा और आधुनिकता से जोड़ते है और इनका पालन करने की कोशिश करने वालो को अशिक्षित या पिछड़ा बता कर आत्म प्रंशंसा  कर लेते है.पहले तो कतिपय सुविधा भोगी महानुभावो ने विधाओं को ऐसा रूप दिया और बंधन कारी बनाया कि वो आचरण में ढालने के लिए आवश्यक विधाएं महशूस न होकर,मजबूरी में मानने के लिए सजाएँ महशूस होना शुरू हुई. और फिर जो विधाएं शांत, व्यवस्थित,संयमित और समृद्ध मानव जीवन के लिए परम आवश्यक थी, जिन्हें संस्कार के रूप में स्वाभाव में ही शामिल कराया जाता था, वो अनावश्यक रूढ़ियों के रूप में बदनाम प्रचारित हुई. चूँकि हमारी विधाओं को मानव स्वभाव में शामिल करने के लिए बनाया  गया था, ताकि मानव अपने विवेक से उनके अनुसार आचरण करे.अतः उन्हें मनवाने के लिए कोई कानूनी दंड आदि का प्रावधान  नहीं रखा गया. क्योंकि आज हम देख सकते है कि बनाये गए कानूनी प्रावधानों का लोगो द्वारा कितना पालन किया जाता है. लोग कानून को अपने आचरण में ढालने से ज्यादा अपनी सामर्थ्य को उन्हें तोड़कर दंड से बचने के रास्ते खोजने में लगा देता है. जैसे हमारी प्राचीन विधाओं में ऐसे संस्कार मन में बिठाये जाते थे, किसी का क़त्ल करना एक ऐसा अपराध है,जिसका परिणाम हत्या करने वाले को अगले जन्म तक भोगना पड़ेगा भले ही वो कितने ही गुप्त तरीके से की  गई हो, भले उसका कोई सबूत या गवाह न हो. परिणाम स्वरूप लोग हत्या जैसा  अपराध करने को मानसिक  रूप से तैयार ही नहीं होते थे, जबकि आज कानूनी दंड का प्रावधान होने के बावजूद लोग हत्या से परहेज करने की बजाय, कानून से बचने के रास्ते खोज कर अपराध करने में नहीं हिचकते है. आज दूसरे के धन को हड़पने का मौका मिल जाये तो क़ानूनी दाव पेच लगाकर हड़पने में जरा भी संकोच नहीं रहा है, जबकि जिनके संस्कार में धन परायों बिस ते बिस भारी वाले संस्कार है वो दूसरे का धन हड़पने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. ये तो दो छोटे उदाहरण है, इस तरह की तमाम आदते जो हमारी विधाओ में शामिल थी जो बचपन से ही हमारी मानसिकता में घर कराई जाती थी,जिनसे परिवार के साथ साथ समाज में भी सामंजस्य बना रहता था.आज हम भौतिक लालसा के कारण,खुद तक सीमित होने की मानसिकता को पालने की बजह से उन्हें आधुनिकता और आधुनिक शिक्षा का बहाना लेकर नकारना चाहते है.जबकि ये सत्य है, और उसे हम जानते है की भौतिक जगत अनंत और परिवर्तनशील है. उसकी पूर्णता की प्राप्ति असंभव है. चाहे हम कितने भी प्रयास करे. तो क्यों न हम वो प्रयास अपने संस्कारो के साथ ही करे और जो भी अधिकतम सफलता प्राप्त कर सकते है, करते हुए अपने परिवार,समाज और देश का सम्मान और सम्रद्धि बढ़ाए. अगर हम अपनी विधाओ को सही अर्थ में समझ जाये तो जो आज सम लैंगिकता को जायज ठहराने जैसे घिनौने  प्रकरण उभर कर आ रहे है, संबंधो में रहने की प्रथा पनप रही है, शादियाँ टूट रही है,चरित्रहीनता बढ रही है, बेईमानी क्या हर क्षेत्र में  भ्रस्टाचार बढ़ा है अर्थात आचरण ही भ्रस्ट हो चुका है क्योंकि जो आचरण बनाने वाली विधाए है उन्हें ही अनदेखा करके जो आचरण बनेगा उससे कोई अपेक्षा रखा जाना या कानून के डर से भ्रस्ट होने से रोकने की कोशिश करना ये बेमानी होगा, क्योंकि कानून के दावपेच से बचने के रास्ते खोज कर कैसा भी आचरण करने से परहेज नहीं रखेगा.ये सब आज होने लगा है, और उसके लिए हमारी विधाओ की अनदेखी किया जाना मुख्य कारण है, क्योंकि आज हम सिर्फ खुद के बारे में सोचने लगे है,अन्य कोई क्या कर रहा है उससे जरा भी इत्तेफाक नहीं रखना चाहते,और न अन्य के सही या गलत आचरण पर अपना विचार ही व्यक्त करना चाहते. सिर्फ हम उसकी तारीफ या इज्जत करने का प्रदर्शन करते है जो ताकतवर हो, कभी हमारे काम आ सके भले ही उसका आचरण कैसा भी हो. और जब तक कोई हमारे साथ गलत वर्ताव नहीं करता तब तक हम अपना कोई विचार उसके बारे में देना जरुरी नहीं समझते भले ही वो दूसरो के साथ कितना भी गलत वर्ताव करता रहे या कोई कितने भी सदाचार से चल रहा हो पर वो हमारे किसी काम नहीं आरहा तो उसकी अच्छाई में दो शब्द भी कहना हम अनावश्यक मानते है.. अर्थात आज इज्जत पाने या देने का आधार आचरण नहीं,भौतिक सम्पन्नता है,और उसके लिए कैसे भी  धन होना चाहिए चरित्र भले नहीं हो.अतः आज जो धनवान है, भले कैसे भी कमाया हो,बस क़ानूनी दावपेच में न फंसे, उसके पास ताकत है.तो हम आज उसके धन कमाने का गुणगान और इज्जत करते है, न कि उसके आचरण का विश्लेसन करते है.क्योकि हमारा भी उद्देश्य आज सिर्फ हमारी भौतिक प्राप्ति ही है और होगी ही क्योंकि मानव चरित्र में सम्मान की लालसा होना लाजिमी है.क्योंकि आदिकाल से ही, अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति के बाद मानव अपने सम्मान की वृद्धि की लालसा में काम करता आया है,जो आज येनकेन प्रकारेन धन प्राप्ति पर ही मिलता है. क्योंकि हमें सिर्फ अपने बारे में सोचने के अतिरिक्त अन्य कोई विचार तक करना आज निरर्थक लगता है. वैसे हमारी विधाएं भी इज्जत दिलाने के लिए ही बनाई गई थी, परन्तु उनमे सिर्फ अपनी इज्जतकी लालसा, से ज्यादा औरो के जीवन के बारे में विचार करने का प्रावधान रखा गया था. और उससे जो जितना ज्यादा विचार औरों के बारे में करता था उसे इज्जत अपने आप ज्यादा मिलती थी और सामाजिक जीवन समृद्ध होता था.शायद ये विधाएं बनाने वाले हमारे पूर्वज हम जितने आधुनिक न रहे हो,भले ही वो आदि  मानव के जंगली एकाकी जीवन को परिवार,समाज और देश तक लाये थे.जिसे आज हम आधुनिक  भौतिक संपन्न , शहरी एकाकी मानव जीवन की ओर ले जाना चाहते है.                          

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