भौतिक प्रगति की क़यामत का मारा।
भौतिक प्रगति में मदहोश होकर,
पालक पहन रहे हैं आधुनिकता का ताज।
कल भी आएगा ये भूलकर,
वो तो सिर्फ देख रहे हैं अपना आज।
रिश्तों को दरकिनार कर,
उसे हर रिश्ते सेदूर कर रहे हैं।
निर्जीव बस्तुओं से भले,
उसका दामन भर रहे हैं।
उसके दादा-दादी का दर्जा आज,
नवीनतम दूरदर्शन को दे रहे हैं।
बे-चारे बच्चे क्या करें,
उसी से संस्कारों की शिक्षा ले रहे हैं।
हरदम अकेले रहते हुए,
रिश्तों का मर्म ही नहीं समझ पा रहे हैं।
रिश्तों के नाम पर बे-चारे सिर्फ,
अंकल-आंटी ही जान पा रहे हैं।
मां का प्यार भी मातृत्व छुट्टियों में ही मिल रहा है।
बिषम परिस्थित में बेचारो का जीवन फूल खिल रहा है।
जन्म लेते ही बाज़ार का सब कुछ तो खूब खिलाया जा रहा है।
पर बेचारे को मां का दूध ही नसीब नहीं हो पा रहा है।
रिश्तों से दूर निर्जीव बस्तुओं के साथ उसे रखा जा रहा है।
पालको पर तो केवल भौतिक उन्नति का नशा छा रहा है।
एकाकी बेचारा उपकरणों के साथ खेलकर बढ़ रहा है।
आगे की सामजिक जिंदगी का पाठ भी यंही से पढ़ रहा है।
छाया से भी दूर रख रहे उसे पारिवारिक रिश्तों के प्यार की।
फिर उसीसे अपेक्षा रखेंगे सामजिक,मानवीय व्यवहार की।
देख रहा है जो बेचारा वही तो व्यवहार में ला पायेगा।
वो भी भौतिक उन्नति की खातिर
पालक को वृद्धाश्रम तक ही भिजवा पायेगा।
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