Monday 13 May 2013

आधार

संस्कार सामाजिक कानून की तरह हमारे समाज में लागू थे।जिन्हें मनवाने की जिम्मेदारी समाज ने पालकों को दे रखी थी।अर्थात अपनी संतान में समाज के संस्कारो का अनुसरण करने की आदत डालना हर नागरिक का कर्तव्य था।अगर वो अपने कर्तव्य  को पूरा करने में असफल होता,तो उसको भी समाज के दण्ड का भागी होना पड़ता था। यही व्यवस्था परिवार के स्तर पर भी थी। अर्थात सामजिक कानून (संस्कार) व्यवस्था का निर्माण कर्तव्य को आधार बना कर की गई थी। अतः हर व्यक्ति कर्तव्य परायण बनने का प्रयास करता था। और कर्तव्य पूरे करने वाले को अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाते थे। और कभीकभार जरुरत पड़ने पर सामाजिक ढ़ांचा भी,कर्तव्य परायण लोगों को अधिकार दिलाने को वचनवद्ध रहता था। जिससे सामजिक अपराध नगण्य होते थे।कालांतर में सामाजिक व्यवस्था का एक तरह से अपहरण हो गया,और वो कुछ लोगों के हाथ में आगई।जिससे सामाजिक दण्ड प्रभावित होने लगा वंही से संस्कार कमजोर होने का सिलसिला चालू हो गया। और पालको ने भी धीरे धीरे संस्कार डालने के अपने कर्तव्य से मुहं मोडना शुरू कर दिया।और आज तो उस कर्तव्य की इति श्री ही हो गई। फिर भी कुछ पुराने संस्कार आज भी जिन्दा हैं,और उन्हें मनवाने को किसी क़ानून या दण्ड विधान की जरूरत नहीं है। काश हमारा जो क़ानून है, जिसका आधार अधिकार को बनाया गया है, उसका आधार कर्तव्य को बनाया होता।और अपने नागरिक कर्तव्य की अनदेखी करनेवाले को सख्त दण्ड का प्रावधान होता,तो शायद हमारे संस्कार और समाज भी जिन्दा बने रहते और अपराध भी कम होते। मगर हमारे कानून में नागरिक कर्तव्य के ऊपर तो गौर करने की बात बहुत दूर की कौड़ी है।जब हमारे आका लोक सेवको के कर्तव्य पालन को भी अनिवार्य करने की सही व्यवस्था नहीं कर पाये हैं। हमारा क़ानून तो सिर्फ ये बताने को बनाया गया है की हमें क्या क्या मिलना चाहिए। अतः आज थोड़ी भी समझ आने पर हर व्यक्ति घर परिवार और समाज में भी हमें जो मिल रहा है,उसका कृतज्ञ होने की वजाय और ज्यादा लेने की अपेक्षा में कोशिश में लगा रहता है।आज संतान अपने पालकों की भी कृतज्ञ होने की वजाय,उनकी इच्छापूर्ति में रह गई कमी को(अपना अधिकार मान) प्राप्त करने को उन्ही से संघर्ष करने को तैयार है। जिससे सौहार्द्र बढ़ने की वजाय ईर्ष्या बढ़ रही है। और हम आज परिवार,समाज,सरकार  और देश से भी ज्यादा से ज्यादा अधिकार लेने की कोशिश में,अपने कर्तव्यों को तो भूलते ही जा रहे हैं।जिससे सारी व्यवस्था ही चरमरा रही है। काश हमारी क़ानून व्यवस्था अधिकारों की वजाय कर्तव्यों को आधार  बनाकर की गई होती। जैसे हमारी संस्कार व्यवस्था थी। 

4 comments:

अज़ीज़ जौनपुरी said...

bahut sundar aur vicharniy prastuti

Unknown said...

dhanyabad

Unknown said...

dhanyabad ji

Jyoti khare said...

सार्थक आलेख
बधाई